पिथौरागढ़
पिथौरागढ़ का पुराना नाम सोरघाटी है। सोर शब्द का अर्थ होता है-- सरोबर। यहाँपर माना जाता है कि पहले इस घाटी में सात सरोवर थे। दिन-प्रतिदिन सरोवरों का पानी सूखता चला गया और यहाँपर पठारी भूमि का जन्म हुआ। पठारी भूमी होने के कारण इसका नाम पििथौरा गढ़ पड़ा। पर अधिकांश लोगों का मानना है कि यहाँ राय पिथौरा की राजधानी थी। उन्हीं के नाम से इस जगह का नाम पिथौरागढ़ पड़ा। राय पिथौरा ने नेपाल से कई बार टक्कर ली थी। यही राजा पृथ्वीशाह के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
पिथौरागढ़ अल्मोड़ा जनपद की एक तहसील थी। इसी एक तहसील से २४ फरवरी १९६० को पिथौरागढ़ जिला का जन्म हुआ। तथा इस सीमान्त जिला पिथौरागढ़ को सुचारु रुप से चलाने के लिए चार तहसीलों (पिथौरागढ़ डीडी घाट, धारचूला और मुन्शयारी) का निर्माण १ अप्रैल १९६० को हुआ।
इस जगह की महत्ता दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गयी। शासन ने प्रशासन को सुदृढ़ करने हेतु १३ मई १९७२ को अल्मोड़ जिले से चप्पावत तहसील को निकालकर पिथौरागढ़ में मिला दिया। चम्पावत तहसील कुमाऊँ की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करनेवाला क्षेत्र है। कत्यूरी एवं चन्द राजाओं का यह काली कुमाऊँ-तम्पावत वाला क्षेत्र विशेष महत्व रखता है। आठवीं शताबादी से अठारहवीं शताब्दी तक चम्पावत कुमाऊँ के राजाओं की राजधानी रहा है।
इस समय पिथौरागढ़ में डीडी हाट, धारचूला, मुनस्यारी, चम्पावत और पिथौरागढ़ नामक पाँच तहसीले हैं। इन पाँच तहसीलों में पिथौरागढ़ में पिथौरागढ़, डीडी हाट, कनालीछीना, धारचूला, गंगोलाहाट, मुनस्यारी, बेरीनाग, मुनाकोट, लोहाघाट, चम्पावत, पाटी, बाराकोट नामक बारह विकासखंड हैं जिनमें ८७ न्यायपंचायते, ८०८ ग्रमसभायें और कुल छोटे-बड़े २३२४ गाँव हैं।
पिथौरागढ़ के धारचूला, डीडी हाट, तम्पावत तहसीलों के बीहड़ इलाकों में 'राजि वन रावत' नामक जनजाती भी निवास करती है। इनके कुल सात गाँव हैं जिनमें केवल ९२ घरें हैं। 'राजि वन रावतों' की जनसंख्या १९८१ की जनगणना कुल ३७१ हैं, जिनमें पुरुषों की संख्या २०५ और महि#लिाओं की संख्या १६६ को गिनती किया गया है।
पिथौरागढ़ में 'भोटिया अर्थात शौका' भी दूसरी अनुसूचित जनजाती है। यह अनुसूचित जिजाति धारचूला और मुनस्यारी तहसील के अन्तर्गत निवास करती है। धारचूला तहसील में शौका अर्थात भोटिया जनजाति दारमा (धौली नदी की उपत्यका) व्यास (काली नदी की उपत्यका) और चौदास में निवास करती है। मुनस्यारु तहसील में शौका क्षेत्र जौहार के उत्तर में, तिब्बत से पश्चिम में चमोली (गढ़वाल) से दक्षिण में और डीडी हाट से पूर्व में पंचमूली की श्रेणियाँ दारमा से निली हुई है। मल्ला जोहार और गोरीफाट के १५ गाँव शौका जनजाति के गाँव हैं। इस क्षेत्र का अन्तिम और सबसे बड़ा गाँव मिलम है, मिलम ग्लेशि यर को नाम देने का श्रेय इसी गाँव को है। गोरी गंगा का उद्गम इसी ग्लेशियर से हुआ है।
पिथौरागढ़ की चौहदी इस प्रकार है -- पूर्व में नेपाल, पश्चिम में अल्मोड़ा, और चमोली (गढ़वाल), दक्षिण में नैनीताल और उत्तर में तिब्बत स्थित है। इस जनपद का कुल क्षेत्रफल ८८,५५९ वर्ग किमी. है।
पिथौरागढ़ सुन्दर - सुन्दर घाटियों का जनपद है। नदी घाटियों का जनपद है। नदी घाटियों में यहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य बिखरा हुआ है। सीढ़ीनुमा खेतों की सुन्दरता पर्यटकों का मन मोह लेती है। यहाँ के पर्वतों की अनोखी अदा सैलानियों को मुग्ध कर देती है। नदियों का कल-कलस्वर प्रकृति प्रेमियों को अलौकिक आनन्द देता है।
पिथौरागढ़ - यह समुद्रतल से १६१५ मीटर की उँचाई पर ६.४७ वर्ग किलोमीटर की परिधि में बसा हुआ है। इस नगर का महत्व चन्द राजाओं के समय से रहा है। यह नगर सुन्दर घाटी के बीच बसा है। कुमाऊँ पर होनेवाले आक्रमणों को पिथौरागढ़ ने सुदृढ़ किले की तरह झेला है। जिस घाटी में पिथौरागढ़ स्थित है, उसकी लम्बाई ८ किमी. और चौड़ाई १५ किमी. है। रमणीय घाटी का मनोहर नगर पिथौरागढ़ सैलानियों का स्वर्ग है।
पिथौरागढ़ पहुँचने के लिए दो मार्ग मुख्य हैं। एक मार्ग टनकपुर से और दूसरा काठगोदाम हल्द्वानी से है। पिथौरागढ़ का हवाई अड्डा पन्तनगर अल्मोड़ा के मार्ग से २४९ किमी. का दूरी पर है। समीप का रेलवे स्टेशन टनकपुर १५१ किमी. की दूरी पर है। काठगोदाम का रेलवे स्टेशन पिथौरागढ़ से २१२ किमी. का दूरी पर है।
पिथौरागढ़ नगर में पर्यटकों के रहने-खाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था है। यहाँ २४ शैयाओं का एक आवासगृह है। सा. नि. विभाग, वन विभाग और जिला परिषद का विश्रामगृह है। इसके अलावा यहाँ आनन्द होटल, धामी होटल, सम्राट होटल, होटल ज्योति, ज्येतिर्मयी होटल, लक्ष्मी होटल, जीत होटल, कार्की होटल, अलंकार होटल, राजा होटल, त्रिशुल होटल आदि कुछ ऐसे होटल हैं जहाँ सैलानियों के लिए हर प्रकार की सुविधाऐं प्रदान करवाई जाती है।
पर्यटकों के लिए 'कुमाऊँ मंडल विकास निगम' की ओर से व्यवस्था की जाती है। शरद् काल में यहाँ एक 'शरद कालीन उत्सव' मनाया जाता है। इस उत्सव मेले में पिथौरागढ़ की सांस्कृतिक झाँकी दिखाई जाती है। सुन्दर-सुन्दर नृत्यों का आयोजन किया जाता है।
पिथौरागढ़ में स्थानीय उद्योग की वस्तुओं का विक्रय भी होता है। राजकीय सीमान्त उद्योग के द्वारा कई वस्तुओं का निर्माण होता है। यहाँ के जूते, ऊन के वस्र और किंरगाल से बनी हुई वस्तुओं की अच्छी मांग है। सैलानी यहाँ से इन वस्तुओं को खरीदकर ले जाते हैं।
पिथौरागढ़ में सिनेमा हॉल के अलावा स्टेडियम औरनेहरु युवा केन्द्र भी है। मनोरंजन के कई साधन हैं। पिकनिक स्थल हैं। यहाँ जर्यटक जाकर प्रकृति का आनन्द लेते हैं।
पिथौरागढ़ में हनुमानगढ़ी का विशेष महत्व है। यह नगर से २ किमी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ नित्यप्रति भक्तों की भीड़ लगी रहती है।
एक किलोमीटर की दूरी पर उलवा देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है। लगभग एक किलोमीटर पर राधा-कृष्ण मन्दिर भी दर्शनार्थियों का मुख्य आकर्षण है। इसी तरह एक किलो मीटर पर राय गुफा और एक ही किलोमीटर की दूरी पर भटकोट का महत्वपूर्ण स्थान है।
पिथौरागढ़ सीमान्त जनपद है। इसलिए यहाँ के कुछ क्षेत्रों में जाने हेतु परमिट की आवलश्यकता होती है। पिथौरागढ़ के जिलाधिकारी से परमिट प्राप्त कर लेने के बाद ही सीमान्त क्षेत्रों में प्रवेश किया जा सकता है। पर्यटक परमिट प्राप्त कर ही निषेध क्षेत्रों में प्रवेश कर सकते हैं। चम्पावत तहसील के सभी क्षेत्रों में और पिथौरागढ़ के समीप वाले महत्वपूर्ण स्थलों में परमिट की आवश्यकता नहीं होती।
पिथौरागढ़ जनपद के कुछ महत्वपूर्ण स्थल कुछ इस प्रकार हैं।
१. चण्डाक - पिथौरागढ़ से केवल ७ किलोमीटर दूर समुद्रतल से १८०० मीटर की ऊँचाई पर चण्डाक नामक रमणीय स्थल स्थित है। पर्यटक चण्डाक जाकर पिकनिक करते हैं। यहाँ की प्राकृतिक छटा अत्यन्त आकर्षक है। चण्डाक से सम्पूर्ण घाटी बहुत साफ और आकर्षक दिखाई देती है। पर्यटक सम्पूर्ण घाटी के अद्भुत् सौन्दर्य को देखने हेतु चण्डाक अवश्य आते हैं। आजकल यहाँ मैग्नासाइट के उद्योग लग जाने से इस स्थान का महत्व और भी बढ़ गया है। औद्योगिक नगर के रुप में अब इस स्थान की प्रगति हो रही है।
थल केदार - थल केदार में शिव का मन्दिर है। पिथौरागढ़ से इसकी दूरी ६ कि. मि. है। यह अत्यन्त सुषमापूर्ण स्थान है। शिवरात्री के दिन यहाँ पर एक विशाल मेला लगता है। दूर-दूर के यात्री इस अवसर पर यहाँ आते हैं। पिथौरागढ़ में थल मेला का भी विशेष महत्व है। मेले के अवसर पर यहाँ पर नृत्यों का आयोजन भी होता है। अन्य आकर्षक कार्यक्रम भी सम्पन्न किए जाते हैं।
ध्वज - 'ध्वज' पिथौरागढ़ का ध्वज है। यह अत्यन्त सौन्दर्य वाला स्थल है। यहाँ से हिमालय का दृश्य इतना आकर्षक है कि पर्यटन एवं प्रकृति-प्रेमी केवल यहाँ से हिमालय के अद्भुत सुषमा के दर्शन हेतु दूर-दूर से आते है। हिमालय का हिमरुपी चाँदी का-सा भव्य सुकुट दर्शकों को आपार शान्ति देता है। पिथौरागढ़ धारचूला मोटर मार्ग के १८ वें किलोमीटर पर समुद्रतल से २,१०० मीटर की ऊँचाई पर 'ध्वज' स्थित है। प्रकृति के अत्यन्त लुभावने स्थलों में ध्वज की गिनती की जाती है।
एबट माउंट ं]' - पिथौरागढ़-टनकपुर मोटर मार्ग पर लोहाघाट से पहले एबट माउंट का दर्शनीय स्थल आता है। यह स्थल समुद्रतल से २००१ मीटर ऊँचाई पर स्थित है। लोहाघाट की सीमा में पड़ने वाला यह स्थान कुमाऊँ के अत्यन्त रमणीय स्थलों में गिना जाता है। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता इतनी आकर्षक है कि कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने यहाँ रहने के लिए सुन्दर-सुन्दर बंगले बनवा लिए हैं। पर्वत चोटीके आस-पास ये सभी बंगले आधुनिक सुविधाओं को लेकर बनाये गये हैं। सैलानी 'एवट मा पर जाकर हिमालय के विभिन्न अंचलों के आकर्षक दृश्य देखते हैं। नीचे घाटी की सुषमा भी यहाँ से साफ दिखाई देती है।
लोहाघाट - पिथौरागढ़ टनकपुर मोटर - मार्ग के ६२ वें किलोमीटर की दूरी पर समुद्रतल से १७०६ मीटर की ऊँचाई पर लोहाघाट नामक नगर स्थित है। इसके पास ही लोहावती नदी बहती है। लोहाघाट का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है। लोहाघाट के आस-पास अनेक दर्शनीय स्थल हैं, जहाँ पर्यटक घूमते हुऐ दिखाई देते हैं। पर्यटकों के लिए पर्यटन आवासगृह के अलावा सा. नि. विभाग का विश्राम - गृह और जिला परिषद का डाक बंगला भी उप लब्ध हो जाता है। इसके अलावा यहाँपर कुछ होटल भी हैं जहाँ रहने और खाने का सुन्दर व्यवस्था हो जाती है। लोहाघाट में कॉलेज, बैंक, डाकघर के अलावा एक छोटा सा परन्तु आकर्षक बाजार है।
मायावती स्वामी विवेकानन्द को यह स्थान अति प्रिय लगा। उन्होंने यहाँ पर " अद्वेत आश्रम" की स्थापना की थी। यह आश्रम आजकल मायावती ट्रस्ट के द्वारा संचालित होता है।
मायावती का शान्त और सुखद वातावरण प्रकृति-प्रेमियों के लिए विशेष आकर्षण पैदा करता है। इस स्थान से हिमालय की रजत-रुपहली हिम-मंडित पर्वत श्रृंखला को देखा जा सकता है। गढ़वाल हिमालय से कुंमाऊँ और नेपाल हिमालय की प्रायः सभी ऊँची-ऊँची हिम मंडित-चोटियों के दर्शन मायावती से हो जाते हैं। दर्शक इन्हीं पर्वत-चोटियों की अलौकिक सुषमा को देखने यहाँ निरन्दर आते रहते हैं। १ मई से १५ जुलाई और १५ सितम्बर से १५ नवम्बर के बीच का समय यहाँ की सुन्दरता देखने के लिए उपयुक्त समझा जाता है।
मायावती का पावन स्थल लोहाघाट से केवल ९ किमी. की दूरी पर है। यहाँ पर आश्रम की तरफ से उत्तम आवास व भोजन की व्यवस्था की जाती है। पर्यटक एवं धार्मिक यात्री यहाँ वर्ष भर आते-जाते रहते हैं।
चम्पावत - कुमाऊँ में टम्पावत का ऐतिहासिक महत्व है। अल्मोड़ा आने से पूर्व चंद्रवंश के राजाओं की यह राजधानी थी। एक समय चम्पावत का इतना प्रभाव था कि सम्पूर्ण पर्वतीय अंचल ही नहीं, अपितु मैदानों के कुछ भागों तक इस नगर के राजाओं का आतंक छाया रहाता था।
१४ वीं शताब्दी में चम्पावत नगर स्थापित हुआ था। उसी समय वहाँपर वालेश्वर मंदिर समूह का निर्माण हुआ था। कुमाऊँनी वास्तुकला की चरम परिणति यहीं के मंदिरों में देखी जा सकती है। कुछ वास्तुकारों का मानना है कि यहाँ के चम्पादेवी, रत्नेश्वर और दुर्गा मंदिरों की शैली उत्तर भारत के मंदिरों के अनुरुप है। जबकि यहाँ के नागनाथ मंदिर समूह की वास्तुकला को विशुद्ध कुमाऊँनी वास्तुकला का आदर्श माना गया है।
धरती के विशाल आंगन में चम्पावत का ऐतिहासिक नगर पिथौरागढ़ से ७६ कि. मी. की दूरी पर समुद्रतल से १६१५ मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है। पिथौरागढ़ से टनकपुर को जानेवाली मोटर सड़क पर इस स्थान का महत्व इस अंचल में सबसे अधिक आंका गया है।
चम्पावत के अंचल से ही कुमाऊँ को नाम मिली है। इसी क्षेत्र को 'कुमूँ' कहते हैं। इसी नगर के पास विष्णु का कूर्मावतार होना बताया जाता है। कूर्मावतार से ही कुमार्ंचल नाम पड़ा, जिसे आज कुमाऊँ कहते हैं।
चम्पावत में पुरानी राजधानी के खण्डहर आज भी देखने को मिलते हैं। यहाँ के पुराने किले के स्थान पर तहसील मुक्यालय है। अन्य भवन भी पुराने किले में बने हैं। यहाँ का पुराना किला ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है।
बालेश्वर मंदिर चम्पावत का विशेष आकर्षण है, तो नागनाथ मंदिर कुमाऊँणी स्थापत्य कला का अनुकरणीय उदाहरण है। इसके अलावा चम्पावत में कई ऐसे आकर्षक स्थल हैं। जिनका प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व है और जिन्हें देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक निरन्तर आते रहते हैं।
चम्पावत में पर्यटकों के लिए पर्यटन विभाग का २४ शैय्याओं का एक सुन्दर आवासंगृह है। इसके अलावा इस नगर में रहने आर खाने की उत्तम व्यवस्था हो जाती है। पिथौरागढ़ #ौर टनकपुर से आनेवाली बसों की सवारियों का चमेपावत एक ऐसा स्टेशन है जहां वे चाय पीते हैं या भोजन करते हैं।
हल्द्वानी-काठगोदाम अल्मोड़ा मोटर मार्ग पर जो महत्व गरम पानी का है-वही महत्व चम्पावत का भी पिथौरागढ़-टनकपुर मोटर-मार्ग पर माना जाता है। 'चम्पावत के मनोरम क्षेत्र को देखने के लिए पर्यटक मुख्यतः टनकपुर की ओर से ही आते हैं। परन्तु कुछ सैलानी नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ होकर भी यहाँ पहुँचते हैं।
देवीधूरा - देवीधूरा पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा का विशिष्ट धार्मिक स्थान है। यहाँ पर बाराही देवी का सुप्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर की मान्यता सम्पूर्ण कुमाऊँ मंडल में है। इस स्थान की जहाँ धार्मिक महत्ता है, वहाँ इसके प्राकृतिक सौन्दर्य की भी विशेष ख्याति है।
प्रतिवर्ष रक्षावंधन के दिन यहाँ पर एक विशेष मेला लगता है। इस मेले में कुमाऊँ के ही नहीं अपितु गढ़वाल, नेपाल और मैदानों के हजारों लोग पहूँचते हैं। 'कुमाऊँ' के लोकगीतों और लोकनृत्यों की सही झलक यहीं दिखाई देती है। नृत्यदल इस मेले में अलग-अलग नाचते रहते हैं। इस मेले में कई खेल भी खेले जाते हैं। एक ऐसा खेल 'बगवाल' भी खेला जाता है जिसमें एक पक्ष के लोग दूसरे पक्ष के लोगों पर पत्थर फेंककर अपनी विजय सुनिश्चित करता है।
देवीधूरा, लोहाघाट से ५८ किमी. की दूरी पर समुद्रतल से २५०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ से अल्मोड़ा को सीधा मार्ग चला गया है। देवीधूरा के मेले में नैनीताल ऐर अल्मोड़ा के दर्शक तथा पर्यटक अल्मोड़ा से लमगड़ा होते हुए देवीधूरा के पावन स्थल तक पहुँचते हैं। वह सुन्दर मोटर मार्ग का रास्ता है।
पूर्णागिरी - पिथौरागढ़ में पूर्णागिरी का जहाँ धार्मिक महत्व है - वहाँ इस स्थल का पर्यटन की दृष्टि से भी विशेष महत्व है। टनकपुर से केवल २६ किलोमीटर की दूरी पर यह भव्य धार्मिक स्थान बसा है। यहाँ पर पूर्णागिरी का पीठ है, इसलिए कुछ लोग इस स्थल को 'पुण्यगिरी' के नाम से पुकारना अदिक पसन्द करते हैं। इस दिव्य स्थान पर पहुँचकर मानव का मन सांसारिक छल-कपटों से हटकर अनायास निर्मल हो जाता है। इस स्थान का यह एक ऐसा चमत्कार है जिसे नास्तिक से नास्तिक मनुष्य भी अनुभव करता है। पुण्यादेवी के भक्तों की तो यहाँ सदैव भीड़ लगी रहती है, परन्तु चैत्रमास के नवरात्रों में तो यहाँ पैर रखने की भी जगह कठिनाई से मिलती है। मनोकामना प्राप्ति हेतु हजारों भक्त यहाँ पहुँचते हैं।
'पुण्यादेवी' क्षेत्र में पर्यटक, सैलानी भी अधिक पहुँचते हैं। टनकपुर से यहाँ पहुँचना सरल होता है।
१. श्री कैलाश नारायण आश्रम - यह आश्रम भारत विख्यात हो चुका है। स्वामी श्री १०८ नारायण स्वामी ने इसकी स्थापना १९३६ में की थी, उन्हीं के नाम से यह आश्रम प्रसिद्ध हो गया है।
चौबासपट्टी के सोसा गाँव से ४२-४२ किमी. पूरब की ओर २७०० मीटर की ऊँचाई पर यह आक्श्रम स्थित है। यह अत्यन्त रमणीय स्थल है, यहाँ पर स्वामी जी ने एक भव्य मंदिर बनवाया है। कई भवन बनवाये हैं। उद्यान और फूलों के बगीचे भी लगवाये। इस स्थान की सुन्दरता इतनी अधिक है कि देश के कोने-कोने के प्रकृति प्रेमी इस आश्रम में रहकर हिमालय के अद्भुत दर्शन करते हैं।
इस आश्रम से कैलाश मानसरोवर जाने के लिए मार्ग है। चीन की सीमा यहाँ से अतिनिकट है। विश्व प्रसिद्ध भूगोलवेता स्वामी प्रणवानन्द इसी आश्रम में रहते हैं और यहीं से वे कई बार कैलास मानसरोवर की यात्रा कर चुके हैं।
२. कुटी - धारचूला तहसील का कुटी आखरी गाँव है, ५,४४५ मीटर की ऊँचाई पर यह गाँव स्थित है। यह स्थान अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विख्यात है। पिथौरागढ़ की लोककथाओं में इस स्थान को कैलास धाम माना गया है।
यह स्थान किसी शौका सामन्त राजा की राजधानी भी रहा है। यहाँ आज भी खसकोट के खण्डहर हैं, जिससे ज्ञात होता है कि यहाँ पहले किसी न किसी प्रभावशाली राजा का किला रहा होगा। कुटी में एक अद्भुत पत्थर है, जिसके बीच में एक १.५ फीट व्यास का विवर (छेद) है, लोगों का यह मानना है कि जो व्यक्ति इस छेद को पार कर जाए वही धर्मात्मा है। जो पार न कर सके उसे पापी व अधर्मी समझा जाता है। ग्लेशियर के द्वारा निर्मित समतल पठार पर बसा हुआ कुटी गाँव सम्पूर्ण पिथौरागढ़ का आकर्षण क्षेत्र है। इसके चारों ओर हिमाच्छादित पहाड़ दिखाई पड़ता है।
३. ज्योलिकलम - यह एक रमणीक स्थान है, जो कुटी गाँव की सीमा पर स्थित है। शौका लोगों में यह मान्यता है कि यह स्थान कैलास मानसरोवर जैसा है, इस स्थान से हिमालय का दृश्य अत्यन्त आकर्षक दिखाई देता है।
४. लिथलाकोट (तिलथिन) - पिथौरागढ़ की चौंदास पट्टी के आबाद स्थानों में लिथलाकोट सबसे ऊँचे स्थानों पर स्थित है। चौंदास क्षेत्र के इष्टदेव 'स्यंसै' इसी लिथलाकोट की चोटी पर पूजे जाते हैं। इस चोटी के एक ओर मंदिर है। शौका लोगों का मानना है कि उनके पूर्वजों का निवास स्थान यहीं था। लिथलाकोट चोटी के चारों तरफ नीचे ढ़लानों पर चौदास के सारे गाँव बसे हैं।
पहाड़ के पीछे एक प्राचीन राजमहल के खण्डहर आज भी दिखाई देते हैं। यह स्थान अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के रंग-बिरंगे फूल, मखमली घास और बाँस और देवदार के वृक्ष इतने सुन्दर हैं कि देश-विदेश के सैकड़ों पर्यटक यहाँ की सुन्दरता देखने लिथलाकोट पहुँचते हैं।
५. पंचचूली - पंचचूली पर्वत शिखर दारमा धाटी में स्थित है। पंचचूली पर्वत क्श्रेण की यह विशेषता है कि मुक्य चोटी के चारों ओर चार अन्य पर्वत शिखर हैं। धार्मिक ग्रन्थों में इसे पंचशिरा कहते हैं। कुछ ग्रमीण लोगों की यह मान्यता है कि पाँचों पर्वत शिखर युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव-पाँचों पांडवों के प्रतीक हैं। इस खिखरों की विशेषता यह है कि प्रतिवर्ष देश व विदेश के पर्वतारोही इन शिखरों पर पर्वतारोहण के लिए आते हैं। परन्तु तेज ढ़ाल (सीधी ढ़ाल) के कारण कोई भी पर्वतारोही दल पंचचोली पर आज तक नहीं चढ़ पाया है।
शौका लोगों का यह पर्वत बहुत चहेता है, इसलिए इनके लोकगीतों में इसे दरमान्योली के नाम से पुकारा जाता है। पंचचूली के पाँच प्रदेश में एक ग्लेशियर भी है।
६. मनेला ग्लेशियर से बना हुआ आकर्षक और मनोहरी मैदान है, यहीं पर काली और कुटी नदियों का संगम होता है। यह अत्यन्त प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों में माना जाता है। मैदान के किनारे पहाड़ की जड़ पर व्यास मुनी का मंदिर है। इस मंदिर के ऊपर एक महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है। व्यास घाटी व्यास मुनि के नाम से जानी जाती है। सम्पूर्ण शौका जनजाति महर्षि वेदव्यास को अपना पूर्वज मानती है। इस क्षेत्र में वेदव्यास की पूजा होती है।
मनेला में महर्षि व्यास जी के मंदिर के समक्ष रक्षावंधन के पुनीत पर्व पर दो दिन का मेला लगता है। मेला शुरु होने से पहले रात्रि - जागरण, कीर्तन, भजन, खेलकूद और लोकनृत्य गीतों का आयोजन शुरु हो जाता है। पूर्णमासी के दिन मुख्य मेला लगता है, दूर-दूर के लोग मेले में आते हैं, व्यास क्षेत्र का यह तो प्रमुख मेला है, जिसमें प्रत्येक व्यास भक्त उपस्थित होना अपना सौभाग्य समझता है।
व्यास के मंदिर से कुछ ही दूरी पर कैलाशपति शिव का मंदिर है, यहाँ भी निरन्तर पूजा होती है। शिवपूजा शिवरात्री पर विशेष ढ़ंग से की जाती है।
यहाँ की एक विशेषता और है, व्यासमंदिर के १५० गज की दूरी पर पश्चिम-उत्तर की दिशा में एक छीटी सी गुफा है, जिसमें ९ साँप एक ही साथ रहते हैं। ये सफेद, काले और सफेद-काले मिश्रित रंग के हैं। ये धूप सेंकने के लिए एक साथ बाहर आते हैं, यहाँ के लोग इन्हें दूध पिलाकर शिव के गण के रुप में पूजते हैं। ये कभी किसी का नुकसान नहीं करते बल्कि मनौती करनेवाले लोगों को बाहर निकलकर आशीर्वाद देते हैं। यहाँ सामूहिक पूजा होती है। इस मेले में व्यासपट्टी के आकर्षण लोकनृत्यों का प्रदर्शन होता है, जिन नृत्यों तो देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं।
७. जौलजीवी - काली और गोरी नदी के संगम पर शौकाओं के शीतकालीन आवास-क्षेत्र के दक्षिणी भाग में स्थित है। यहाँ पर समस्त कुमाऊँ का सबसे बड़ा औद्योगिक मेला लगता है। ज्वाहर जयन्ती (१४ नवम्बर) से १५ दिन तक इस मेले का आयोजन होता है। यह पिथौरागढ़ , से ६८ कि. मि. की दूरी पर स्थित है।
इस मेले में शौका, कुमाऊँनी, नेपाली और मैदानी क्षेत्र के हजारों व्यापारी आते हैं और अपने-अपने ढ़ंग का व्यापार करते हैं।
तिब्बत व्यापार - संधि के समाप्त होने से पहले जौलजीवी का मेला शौका व्यापारियों द्वारा आयोजित ऊन तथा ऊनी माल के लिए विख्यात था। नेपाल से अब भी इस मेले में घी, शहद और घोड़े लाये जाते हैं।
इस मेले में जहाँ औद्योगिक सामाग्री की प्रदर्शनी लगती है - वहाँ विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी सम्पन्न किये जाते हैं। नेपाली, शौका एवं कुमाऊँनी नृत्यगीतों के लिए यह मेला विशेष रुप से प्रसिद्ध है।
८. छियालेख - यह स्थल अपनी बनावट और प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विख्यात है। इसके चारों ओर भारत तता नेपाल की हिमाच्छादित पर्वत - श्रेणियाँ हैं। यह स्थल ऊँची पर्वत - श्रेणी के ऊपर एक समतल पठार है। मैदान में नाना प्रकार के फूल खिले रहते हैं। शंकु आकार के सुन्दर-सुन्दर वृक्षों का छाया में उस स्थल की सुन्दरता और बढ़ जाती है। वर्म देवता और छेतो माटी देवताओं के मन्दिर यहीं स्थित है। इन्हीं देवताओं के कारण 'छियालेख' का धार्मिक महत्व भी है। इस क्षेत्र में एक किम्वदन्ति प्रसिद्ध है कि एक बार राम, लक्ष्मण और सीता इस स्थल पर पहुँचे थे। लोगों का यह भी मानना है कि कल्पवृक्ष यहीं था। युगों युगों से चले आये संस्कारों के कारण इस स्थल की मान्यता सम्पूर्ण क्षेत्र में है।
शौका क्षेत्र अत्यन्त सुन्दर है। यहाँ अनेक ऐसे स्थल हैं जिनका धार्मिक, प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। ऐसे अनेक दर्शनीय स्थलों को देशने दूर-दूर से लोग आते हैं। इस अंचल के 'छिपला केदार', 'बंबास्यांसै', 'गबला स्यांसै', 'ज्योलिंका कैलास मेला' और 'वेदव्यास मेला' अपने ढ़ंग के ऐसे मेले हैं जिनका अपना ऐतिहासिक महत्व है। इन मेलों में शौका लोग बड़े उत्साह से जाते है। जौलजीवी का मेला उद्योग तथा मनोरंजन का मेला है, जबकि उपरोक्त अन्य मेले पूर्णतः धार्मिक मेले हैं।
पिथौलागढ़ के शौका क्षेत्र की अपनी विशिष्टता है। यह क्षेत्र युगों - युगों से व्यापार का केन्द्र रहा है। इस क्षेत्र के शौका व्यापारी पश्चिमी तिब्बत के दुश्यर गरलोक, ज्ञानिमा, दर्चयन और ताकलाकोट आदि स्थानों पर जाकर व्यापार करते थे।
आज शौका क्षेत्र के कई उदीयमान युवक देश की हर सेवा में आगे आ रहे हैं। शौका क्षेत्र में दंतो चकहिया नामक शक्तिशाली शासक को याद किया जाता है। सुनपति शौका तो कुमाऊँ के लोकगीतों के नायक ही हैं। सुनपति शौका की ही पुत्री राजुला 'मालूसाही' की प्रसिद्ध नायिका थी। इसी तरह कन्ती - फौंदार की यशस्वी गाथा भी इस क्षेत्र की एक विशेषता है। दानवीर जसुली बूढ़ी शोक्याणी का नाम भी पूरे शौका में प्रसिद्ध है। इसी तरह पं. गोबरया, श्री परमल सिंह धाकी, श्री मोती सिंह मेम्बर, श्री त्यिका नगन्याल, श्री जबाहर सिंह व्यास आदि का नाम इस क्षेत्र में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन लोगों ने अपने क्षेत्र और क्षेत्र की संस्कृति के उत्थान के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किए हैं।
पिथौलागढ़ जनपद अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। आज यह जनपद औद्योगिक प्रकृति में भी आगे बढ़ रहा है। पुरातत्व की दृष्टि से तो यह सम्पूर्ण जनपद अत्यन्त महत्वपूर्ण है। नयीं - नयीं खोजें हो रही हैं। कई स्थानों के उत्खनन से नया इतिहास सामने आ रहा है।
कुमाऊँ का दर्शन तभी पूरा हो सकेगा जब कुमाऊँ के इस अंचल के सभी क्षेत्रों का और सभी स्थानों का अवलोकन किया जाए। कुमाऊँ की मखमली धरती में अनेक महत्वपूर्ण स्थल हैं। प्रकृति के रंगीले - सँजीले क्षेत्र यहाँ यत्र -तत्र मिल जाते हैं।
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